जो लोग छोटे शहरों और कस्बों में रहते
हैं, वो पत्रकारों की इस स्थिति से बखूबी वाकिफ होते
हैं। ऐसी जगहों का ये आम अनुभव होता है कि पत्रकार घूसखोर होते हैं, और पैसे लेकर खबरें छिपाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि जी न्यूज के संपादक
छिपे कैमरों में बड़े स्तर पर जिंदल ग्रुप से कोयला घोटाले से जुड़ी खबरे नहीं
छापने के लिए सौदेबाजी करते देखे गए। वह कह सकते हैं कि वे जिंदल ग्रुप से 100 करोड़ का विज्ञापन मांग रहे थे। ठीक ऐसे ही निचले स्तर पर भी पत्रकार
विज्ञापन लेने के लिए ढेर सारी ऐसी खबरें छिपाते हैं। कई बार यह सौदेबाजी किसी खास
खबर को नहीं छापने की बजाय खबर बन सकने वाले व्यक्ति से इस आधार पर भी होती है कि
पत्रकार उसकी सभी काली करतूतों से मुंह मोड़े रहेगा और कभी उसकी कोई खबर नहीं आने
देगा। मीडिया के निरंतर बढ़ते बाजार ने इन करतूतों की संख्या में ना केवल बढ़ोतरी
की है बल्कि इन के खुलकर सामने आने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। सर्वे के अनुभवः
भ्रष्टाचार छुपाने का खेल मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अखबारों के स्थानीय स्तर के
संस्करणों के विज्ञापनों का एक सर्वे किया यह देखने की कोशिश की कि स्थानीय स्तर
पर अखबारों को कौन से लोग ज्यादा विज्ञापन देते हैं। यह आम अनुभव है कि त्यौहारों
और राष्ट्रीय पर्वों पर अखबार विज्ञापनों से अटे रहते हैं। किसी त्यौहार या
राष्ट्रीय पर्व के दिन का अखबार उठाकर यह साफ-साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय
अखबारों को कैसे-कैसे लोग विज्ञापन देते हैं और उनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो
सकते हैं। ‘‘मीडिया की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा
विज्ञापनों से आता है, ऐसे में कई बार अखबार
विज्ञापनदाताओं को उपकृत करने के लिए उनका हुकुम भी बजाते हैं, खासतौर पर बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाओं के। ऐसी खबरें और लेख जो
विज्ञापनदाताओं के लिए उपयुक्त होती हैं उन्हें प्रमुखता दी जाती है और जो उन्हें
नुकसान पहुंचा सकते हैं उन्हें हटा दिया जाता है।’’ प्रेस
काउंसिल ने यह बातें बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाताओं के संबंध में कही थी। तब
से लेकर अब तक प्रिंट मीडिया का प्रसार और सघन हुआ है। केवल अखबारों की संख्या ही
नहीं बढ़ी है, बल्कि संस्करणों की संख्या में भी तेजी
से बढ़ोतरी हुई है। आज अखबारों के जिले स्तर से लेकर ग्रामीण स्तर पर अखबारों के
संस्करण छप रहे हैं। एक ही जिले में एक अखबार के कई संस्करण पहुंच रहे हैं। मसलन
राजस्थान पत्रिका का कोटा से प्रकाशित होने वाला अखबार शहर के लिए अलग छपता है और
ग्रामीण क्षेत्र के लिए अलग छपता है या इलाहाबाद से दैनिक जागरण का संस्करण शहर के
अलावा आस-पास के क्षेत्रों के लिए और कई संस्करण छापता है, जैसे कि ‘गंगा पार’ और ‘यमुना पार’। अखबारों के संस्करणों में इस तरह से
इजाफे का अपना एक आर्थिक और सामाजिक आधार है जो इन संस्करणों को जीवित रखे हुए है।
बड़े स्तर पर अखबारों की आर्थिक जरूरत विज्ञापनों से पूरी होती है। लेकिन क्या
प्रेस काउंसिल के रिपोर्ट की उक्त बातें छोटे और निचले स्तर पर भी लागू होती हैं? निचले या जिला स्तर पर अखबारों की जरूरत को कौन पूरा करता है? बड़े और कॉरपोरेट विज्ञापनदाता स्थानीय स्तर को ध्यान में रखते हुए
विज्ञापन नहीं देते हैं। जिले स्तर पर अखबारों को स्थानीय लोगों में से विज्ञापन
जुटाने होते हैं और अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हुए कंपनी को फायदा भी देना
होता है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर के विज्ञापनदाताओं और अखबारों के बीच अंतर्संबंध
के बारे में यह बात भी लागू होती है कि ‘अखबार उनकी
इच्छा के अनुसार खबरें छापते या छुपाते हैं।’ मीडिया
स्टडीज ग्रुप एक सर्वे में यह देखने को मिला की अखबारों के स्थानीय संस्करणों को
विज्ञापन देने वाले लोगों में ज्यादातर ग्राम प्रधान, राशन
डीलर, सरकारी अधिकारी और स्थानीय व्यापारी जिसमें
बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर भी शामिल हैं प्रमुखतौर पर शामिल होते हैं। सर्वे में
बहु संस्करणों वाले प्रमुख दैनिक अखबारों को लिया गया है। ये अखबार भारत के
अलग-अलग हिस्सों से अपना कई संस्करण निकालते हैं। जैसे दैनिक भास्कर 13 राज्यों से घोषित तौर पर 65 संस्करण
निकाला है। सर्वे के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा,हिमाचल
प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, असम
और गुजरात से छपने वाले हिंदी भाषा के ‘दैनिक भास्कर’,
‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’, ‘हिंदुस्तान’, ‘जन संदेश टाइम्स’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘पत्रिका’ ‘दैनिक कश्मीर टाइम्स’ और ‘पंजाब केसरी’, पंजाबी भाषा का ‘अजीत’, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’, ‘पंजाबी
जागरण’, गुजराती के अखबार ‘दिव्य
भास्कर’ को शामिल किया गया। इस सर्वे में जो खास बात
देखने को मिली की स्थानीय स्तर के वो सभी संस्थाएं या लोग जो भ्रष्टाचार में लिप्त
रहते/रहती हैं या हो सकती हैं वो अखबारों की प्रमुख विज्ञापनदाता हैं। मसलन सर्वे
में यह देखा गया कि एक व्यक्ति के तौर पर सबसे ज्यादा ग्राम प्रधानों ने विज्ञापन
जारी किए। इसी तरह सरकारी राशन डीलर, सरकारी अधिकारी
जिसमें की थाना प्रभारी से लेकर जिला कलक्टर, तहसीलदार, वन विभाग, शिक्षा विभाग, आपूर्ति विभाग के अधिकारी-कर्मचारी भी विज्ञापनदाताओं में प्रमुख हैं।
मजेदार बात ये कि इन अधिकारियों ने ये विज्ञापन सरकारी तौर पर नहीं दिया बल्कि
व्यक्तिगत तौर पर दिया। इनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो सकते हैं।
No comments:
Post a Comment